Mirza Ghalib, one of the most celebrated poets of the Urdu and Hindi language, is renowned for his profound and evocative love poetry. His verses, brimming with deep emotions, explore the complexities of love, longing, and heartache. Ghalib’s poetry delves into the inner turmoil of unrequited love, with each couplet reflecting the vulnerability and intensity of human emotions. His mastery in capturing the bittersweet essence of love continues to resonate with readers today, making his work timeless and universally cherished. Through his ghazals, Ghalib immortalized love, turning it into an eternal and poetic experience.
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’,
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने।
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।
दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई,
दोनों को इक अदा में रज़ामंद कर गई।
कहाँ मयखाने का दरवाज़ा ‘ग़ालिब’ और कहाँ वाइज़,
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था कि हम निकले।
ये न थी हमारी किस्मत कि विसाल-ए-यार होता,
अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता।
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया,
दर्द की दवा पाई, दर्द-ए-बे-दवा पाया।
रंज से ख़ूगर हुआ इंसां तो मिट जाता है रंज,
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं।
हस्ती का ए’तबार भी ग़ालिब नहीं रहा,
दिल को ख़ुशी का दाग़ दिया बेवफ़ा ने क्या।
न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता।
क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां,
रंग लाएगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन।
जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा,
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तुजू क्या है।
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले।
काबा किस मुँह से जाओगे ‘ग़ालिब’,
शर्म तुमको मगर नहीं आती।
है और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और।
कहूँ किससे मैं कि क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है,
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता।